टमाटर का कड़वा रस : डीएलए 19 जुलाई 2013 में प्रकाशित

टमाटर और सेब दोनों लाल और दोनों आजकल मिल रह हैं बढ़े भाव।  मैं शहंशाह होता तो जरूर ‘टमाटरमहल’ बनवाता क्‍योंकि सेब के भाव बहुधा बढ़े होते हैं। बनिस्‍वत इसके सब्जियों को ऐसे मौके बहुत मुश्किल से मिलते हैं।  गौरतलब यह है कि टमाटर की पौ निन्‍यानवै पहली बार हुई है। सब्जियों में राजनीति की करामात पब्लिक को करारी मात देती रही है। एक बार लौकी के रस को साजिशन कातिल करार दिया जा चुका है। प्‍याज, आलू पब्लिक का रस निचोड़ते रहे हैं।  टमाटर की बढ़ती रूमानियत देखकर सेब का दुखी होना स्‍वाभाविक है।  सेब के चाहने वाले स्‍वास्‍थ्‍य के लिए उपयोगी होने पर भी महंगा होने के कारण उससे नजरें बचाकर निकलने को मजबूर हैं। दुमदार का जमाना है इसलिए आजकल टमाटर की पूछ वाली पूंछ बहुत लंबी हो गई है। टमाटर के लाल गाल वाला रूप आजकल लुभा नहीं, जला रहा है। टमाटर क्रांति का उद्घोष हो चुका है जिसकी वजह से टमाटर की सूरत पर एक्‍स्‍ट्रा एनर्जी वाली चमक दिखाई दे रही है।

टमाटर के दिन-रात इस कदर फिरे हैं कि ‘मेरा दिन मेरी रात’ है, वाली बात सुर्खियों में है।  वैसे इसे ‘सोशलमीडिया पर टमाटर’ और ‘टमाटर पर सोशलमीडिया’ ज्‍यादा सटीक है। ‘टमाटरमहल’ बनाने की बात पता चली तो टमाटर लाज से तमतमा गया, ‘टमाटरमहल’ क्‍या मुझे मुमताज की तरह बेगम समझ लिया है सबने।  

टमाटर को शहंशाह मानने वाले रिकमंड करते हैं कि टमाटर बिना शहंशाह हुए सब्जियों का, दालों का गम दूर करता है, उसमें नई निराली चटकारियत भरता है इसलिए उसे बेगम ही कहा जाए। बेगम की खूबी गम को दूर करती है।

टमाटर की औकात वही पुरानी पर नई पहचान मिली है।  सब्जियों, दालों में घुसकर टमाटर सदा से परोपकार करता रहा है। यह उसका गुप्‍त परोपकार है। परोपकार वाला भाव टमाटर को विरल ऊंचाईयां दे रहा है जिसमें वह अपनी उपयोगिता को दूसरों में निस्‍वार्थ भाव से घुला-मिला रहा है, इसी में उसका बडप्‍पन है और यही जीवन का सच्‍चा सार है। व्‍यायाम करते हुए एक कमजोर से छोटे से पौधे पर टमाटर मजबूती से जमा रहता है और यही उसकी लालिमा का रहस्‍य है। पर आज टमाटर इसलिए दुखी है क्‍योंकि उत्‍तराखंड में आई बाढ़ ने उसका चेहरा पूरी तरह काला कर दिया है और यह इंसान की शैतानी फितरत का काम है, टमाटर को यह मलाल है इसलिए वह शर्म से भी लाल है।  

नीयत खराब होना आज इंसान होने के नये मायने हैं, जो बाढ़ से बरबाद जिंदा लोगों से उनका माल-असबाब लूटकर सरेआम खाई में धक्‍का दे रहे थे मतलब आज का इंसान बदनियति का संगम है। जो मंदिरों की तिजोरी पर लुटेरा बनकर मौजूद है, वही तथाकथित इंसान टमाटर को महंगा बेच रहा है, पीडि़तों के दुख में उसका सुख और लाभ छिपा हुआ है। टमाटर जानता है कि लुटेरों के चेहरों पर छाई रक्‍त की घिनौनी लालिमा है जो सामने वाले के शरीर से रक्‍त का हेमोग्‍लोबिन का लेबल कम कर रही है।

टमाटर महसूस कर रहा था कि उसे सुर्खियों में देखकर आलू, प्‍याज, बैंगन, घिया, तोरई, सीताफल जैसी सब्जियां ईर्ष्‍या से जल-भुनकर खूब महंगी हो रही हैं। जबकि यह सब इंसानी लालच की बानगी है। इंसान किसी मौके का फायदा उठाने से नहीं चूकता। टमाटर का मिले दिव्‍य ज्ञान के बावजूद कि सब्जियों का कोई दोष नहीं है,  फिर भी आज सच का टमाटर कड़वा लगने लगा है।

आजकल मासिक के जून 2013 अंक में 'व्‍यंग्‍य का शून्‍यकाल' की समीक्षा प्रकाशित : पढि़एगा मत



बालमन के पर्यावरण को दूषित होने से बचाएं : डेली न्‍यूज एक्टिविस्‍ट 6 जून 2013 के ब्‍लॉग राग स्‍तंभ में प्रकाशित


मन रे गा अब मिलेगा जॉब कार्ड : दैनिक डीएलए 7 मई 2013 में प्रकाशित



मनरेगा बोले तो मायने यही हैं। मन रे गा खूब लूट लूट। मत देना किसी को कोई छूट छूट। कर देते हैं सभी को शूट शूट। सभी कवि नहीं होते हूट हूट। फेसबुक मन की कहन का रूट रूट। सबको करता है सूट सूट। मन रे गा, मन तो गाएगा, मन तो गाए जा, मन एक बंजारा है गाता जाएगा, मनवा को बहकाए जाएगा। झूठा हो या सच्‍चा हो, मन का तनिक न कच्‍चा हो। फेसबुक दे रहा गच्‍चा, मन को लगे चाहे अच्‍छा, संभल कर रहना सब बच्‍चा।  मन रे गा कमेंट कमेंट। मिले सबकी अब खूब पेमेंट। मन रे गा लाइक लाइक। जल जाती है दिमाग की लाइट लाइट। जिंदगी में सब नहीं राइट राइट। मन रे गा हाइड हाइड। मन रे गा साइड साइड। मन रे गा से बना फ्यूचर ब्राइट। मन रे गा जेल जेल। नेताओं को मिलती बेल बेल। मन रे मत गा बलात्‍कार। बंद क्‍यों नहीं होता दुष्‍कर्मी व्‍यापार।
मन जो गाता है, वह सबको नहीं भाता। मन रे गा मंत्री जादूगर। मन रे गा अब लेगा जान। संसद में मंत्री की अटकी रहती जान। संसद में बसते मंत्री के प्राण। संसद सब दुखों से दिलाती त्राण। देश को लूट लूटकर खाएगा, सांसद वही कहलाएगा। हरेक मंत्री मंत्र की महिमा पहचान चुका। संसद है जादूगर की कुटिया, यह जान चुका।  तिजोरियों में भर रहा है काला झूठ। काला करता सबको सूट सूट। मन चंगा तो कठौती में गंगा। मन नहीं चंगा, संसद में रोज होता पंगा। पब्लिक को सब नेता मिल कर नंगा।
मन रे गा विकास के गीत गीत। मन कर ले सबसे प्रीत प्रीत। मन को ले तू जीत जीत। चुनाव अब आने वाला है। मन रे गा चुनाव चुनाव। नोटों की चला अब नाव नाव। मन रे गा मनरेगा का मतवाला है। विजय का बनना चाहता साला है। साला न कोई गाली है। रिश्‍तेदारी निकाली है। जोरू से बढ़कर होती है साली। मन रे गा चीख चीख। नहीं देनी किसी को अब से भीख। सारी खुदाई दूसरी तरफ, जोरू का भाई अपनी तरफ। मन रे गा मत तड़प तड़प। अब तू हो जा कड़क कड़क। मन नहीं बढ़ता सड़क सड़क। मन चाहता है जी तड़क भड़क। मन रे गा हवा हवाई। लेकर भाग गया भौजाई।
मन रे गा लोकपाल। लोक को पागल कर जाएगा। किसी को नजर नहीं आएगा।  संसद में घुस शोर मचाएगा। संसद हो जाए सख्‍त तख्‍त। देश का कानून न बने दरख्‍त। मनपसंद फल नहीं खायेंगे तभी विकास कर पाएंगे। मन रे गा मत याद दिला गरीब। चुनावों में बनता गरीब रकीब। मन रे गा सब रजामंद। रजामंद सब बने जयचंद। संसद को बेच खाएंगे। काठ की हांडी में पकाएंगे। मन रे गा मत सूत कपास। जूतमजूता लात कुबात। नेता को याद दिला औकात। मन रे गा, मन रे गा, मनरेगा। मन रे गा मिले अब जॉब कार्ड।

मूर्ख दिवस पर गधे का सोचनामा : दैनिक मिलाप में 1 अप्रैल 2013 को स्‍तंभ बैठे ठाले में प्रकाशित



जी हां, मैं गधा हूं। हैरान हो गए जबकि इसमें आश्‍चर्यभ्रमित होने की कोई बात नहीं है क्‍योंकि अगर मैं अपनी पहचान जाहिर न करता तो आप मुझे किसी का पट्ठा बतलाने से न मानते। इसमें दोष आपका नहीं, यह तो जमाने का दस्‍तूर है। आप जो नहीं होते आप वही हो, यह बोध आपको कराया जाता है। इसे कराने वाले बाहर के नहीं आपके अपने ही होते हैं।  इसका कारण  गधे की तरह बिल्‍कुल सीधा है क्‍योंकि गधों को कोई अप्रैल फूल नहीं बनाता।  उनके चेहरे पर फूल या फल बनने या न बनने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। वे निर्विकार हैं और सदा विकारविहीन ही पाए जाते हैं। मैंने खूब सोच समझकर स्‍वयं को इसलिए गधा स्‍वीकार किया है क्‍योंकि इस सृष्टि पर गधा ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो विकाररहित हैइसे सब जानते हैं। जिसे जाना जाता हैउसे माना भी जाता है। मनाने के लिए अलग से कोशिश करने की जरूरत भी नहीं पड़ती। जिस प्रकार फूल बनता नहीं, खिलता है और आपने गधे को खिलखिलाते भी कभी नहीं देखा होगा।
आप मेरे चित्रों पर न जाइये क्‍योंकि आजकल फ्री में एक से बढ़कर एक ऐसी एप्‍लीकेशनों और साफ्टवेयरों की धूम मची हुई है जो मुझे कभी गधा दिखने न दें और आपको दिखने से बचने न दें। गधे को यूं तो देखने की जरूरत ही नहीं पड़ती है लेकिन जब भी देखो तो ऐसा लगता है कि वह आपको ही सहानुभूतिपूर्ण नजरों से देख रहा है। वह आपसे सहानुभूति प्रकट करना चाह रहा है। जबकि आप इसके उलट सोचकर खुश रहते हैं कि वह आपसे सहानुभूति की अपेक्षा कर रहा है, दरअसल वह आपकी उपेक्षा कर रहा है। आप मोबाइल के हद दर्जे तक दीवाने हो सकते हैं। गधा होना सीधा होना है और आज के जमाने में सीधा होना गुनाह है तो गधा होना भी गुनाह है। अगर आप मोबाइल के दीवाने नहीं है फिर तो आप अवश्‍य ही गधे हैं। जिसने मोबाइल साध लियासमझ लीजिए उसने सब जग साध लिया। पर यह भी सच है कि मोबाइल को साधने वाला गधे को नहीं साध सकता है क्‍योंकि गधा कभी मोबाइल का दीवाना नहीं हुआ है। मोबाइल को साधनान साधना जानना गधे से बैर नहीं करा सकता है। यही मूल वजह है इसलिए ही सब आपको पट्ठा बतलाने पर उतारू हैं।
एक और सीक्रेट यह है कि आप फेसबुक पर सक्रिय हैं पर गधा नहीं है। आप कार चला लेते हैंमेट्रो और बस में सफर कर लेते हैं पर गधा इन सबसे परहेज करता है। आप यह समझते हैं कि  गधे के पास पैसे नहीं होंगेपैसे होते वह तब भी इनमें सफर नहीं करता क्‍योंकि गधे को सब पसंद होते हुए भी फिजूलखर्ची पसंद नहीं है और इसीलिए वह मोबाइल फोन का इस्‍तेमाल नहीं करता है। वह स्‍मार्ट फोन खरीदकर स्‍मार्ट गधा भी नहीं दिखना चाहता जबकि बाकी सब यही चाहते हैंचाहे गधे को कोई गधे की इस सोच के लिए गधा ही कहता रहे। पर गधा इस सच्‍चाई को जानता है कि यह गुण गधे के नहीं हो सकते। आखिर इंसान और गधे में तनिक सा फर्क तो होता ही है। इसे आप अब नहीं समझ रहे हैं पर जब इसे पूरा पढ़ लेंगे तब जरूर समझ जायेंगे।
आपका बैंक खाता है पर गधे का नहीं है। आप तो यह सोचने लग गए कि बैंक गधे का खाता क्‍यों खोलने लगे जबकि जिसके पास मोबाइल फोन नहीं हैवह सबसे अधिक बचत कर सकता है। वह बात अलग है कि बिना मोबाइल फोन के बैंक खाता खुलना सामान्‍य घटना नहीं है। यह बिल्‍कुल सामान्‍य ज्ञान की बात है। इसके लिए परम ज्ञानी अथवा विज्ञानी होने की जरूरत नहीं है। आप चिंतित हो सकते हैं पर गधा चिंतित नहीं होता। तब भी नहीं जब उसकी पीठ पर रुई लादी जाती है और तब भी नहीं जब उसकी पीठ पर कपड़े अथवा मिट्टी ढोई जाती है। वह तो तब भी चिंता नहीं करता जब उसकी पीठ खाली होती है और उसके दोनों पैरों को एक रस्‍सी से बांध दिया जाता है। तब वह दोनों पैरों से दुलत्‍ती मारने की अपनी कला से मुकाबला कर लेता है। इससे मालूम हो जाता है कि गधा चिंतारहित जीवन जीता है। वह घास खाता है पर पानी पीता है या नहींइसके बारे में इसलिए संदेह है क्‍यों‍कि कभी गधे की प्‍यास की किसी ने चिंता नहीं की है। जब भी गधे या घोड़े की यारी की चर्चा चलती है तो घास उसमें ऐसी प्रेमिका होती है जो प्‍यार में अपने को लुटा देती है। न घास के आंसुओं का कहीं जिक्र आता है और न गधे को ही घास के प्रेम में आंसू टपकाते पाया जाता है। मतलब न नमकीन और न मीठा पानीकड़वे की तो सोचिए भी मत।
पर आपने अगर दोनों टांगों से इकट्ठे उछलने की कोशिश भी की तो सब आपको तुरंत गधा बतला देंगे। गधों की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता का कारण उनका तेजी से बढ़ता साम्राज्‍य है। जबकि आजकल उल्‍लू दिखाई देने बंद हो गए हैं। उल्‍लुओं को न देख पाने के कारण गौरेया भी उल्‍लू की तरह हाइडमोड में चली गई है। उल्‍लू नजर नहीं आते हैं और गधे नजर आते हैं। उल्‍लू ढूंढने पर भी नहीं मिलते और गधे बिना ढूंढे। गधे अपने पूरे खानदान के साथ समाज में मौजूद होकर सबका मुकाबला करते हैं जबकि उल्‍लुओं में आत्‍मविश्‍वास की बेहद कमी होती है। इतना होने पर भी उनके पट्ठे बहुत ही सरलता से सब जगह पहचाने जाते हैं। आप कितने ही तथाकथित इंसानों को उल्‍लू का पट्ठा कहकर संबोधन सुनकर हंसते मुस्‍कराते देख सकते हैं। पर गधों के साथ ऐसा नहीं है। गधों को कभी जिम्‍मेदारी से मुंह मोड़ते नहीं देखा गया है जबकि उल्‍लुओं को जिम्‍मेदारी सौंपी जाने वाली है, यह भनक लगते ही वे आसमान में उड़ जाते हैं। गधों के पंख नहीं होतेपर यह निश्चित है कि अगर उनके पंख होते तब भी वह उल्‍लुओं की तरह नहीं उड़ते। इसका इससे पुख्‍ता प्रमाण और क्‍या होगा कि उनके सींग नहीं होते हैं और अगर उनके सींग होते भी तो वे सींग मारने से अच्‍छा दुलत्‍ती मारना ही समझते। आखिर दुलत्‍ती मारने और खाने का जो आनंद हैवह सींग में नहीं है। इसलिए परमात्‍मा ने उन्‍हें सींग नहीं दिए हैं। वैसे खबर मिली है कि कुछ देशों में सींग वाले गधे भी पाए जाते हैं और वे कई बार भारत की सरकारी यात्रा पर आते रहते हैं। उनके दिखाई न देने वाले सींगों से डरकर सरकार उनकी आवभगत में तिजोरी और सिक्‍यूरिटी पूरी तरह खोल देती है।
इसी तरह यह भेद भी अब जगजाहिर हो चला है कि उल्‍लू का असली पट्ठा ही दूसरे उल्‍लू के पट्ठे को पहचान सकता है और वह उसकी पहचान जाहिर करने में तनिक भी शर्म नहीं करता हैइससे अधिक प्रमाण की इस बात को स्‍पष्‍ट करने के लिए जरूरत भी नहीं है। जबकि आप इसे सामान्‍य गाली समझकर इस ओर बिल्‍कुल भी ध्‍यान नहीं देते हैं। सत्‍ताधारी विपक्षियों को पट्ठा मानते हैं और विपक्षी सत्‍ताधारियों को इस सम्‍मान से वंचित नहीं रहने देना चाहते हैं। इसके उलट न गधों और न उनके पट्ठे को आपस में पहचानने का खेल खेला जाता है। अब तो आप समझ गए न कि गधों को पट्ठा कहना कोई हंसी ठट्ठे वाली बात नहीं है। कोई उल्‍लू या उसका पट्ठा भी कभी किसी को गधे का पट्ठा कहते नहीं पाया गया हैयही गधे को सीधा मानने के लिए पर्याप्‍त है।

नींद में विचार की पुकार : दैनिक राष्‍ट्रीय सहारा 26 मार्च 2013 स्‍तंभ चलते-चलते में प्रकाशित



नींद खूब आ रही हो और आंखों से ढरक जाए अथवा कम आ रही हो जिससे आंखें नींद के लिए तरस जाएं तो दोनों ही स्थितियां भयावह होती हैं। इससे स्वभाव में चिडचिड़ापन हावी हो जाता है। नींद और विचारों का चोली दामन का न सही, पर मियां बीवी वाला साथ जरूर होता है। विचार अमूमन दिमाग में उस समय ही कुलांचे भरते हैं, जिस समय सोने का समय हो। यह सोना स्वर्ण भले न हो पर शरीर के लिए नींद सोने के धातुई तिलिस्म से अधिक उपयोगी है। विचाररहित मन उजाड़ मरु स्थल से अधिक नहीं है। मन की महत्ता तभी है, जब उसमें उत्तम विचारों का वास हो। नींद जब भरपूर तेजी में होती है, तब बिना ब्रेक के आंखों के रास्ते शरीर पर से बेध्यानी में गुजर जाती है, शरीर के लिए घनघोर संकट की स्थिति होती है। वह व्यवहार को र्दुव्‍यवहार में बदल देती है। जब नींद की तेजी इतनी कम होती है कि पलकें भी भारी नहीं होतीं, तब पलकें नींद की आभारी नहींहो सकतीं। संपूर्ण नींद के लिए दोनों स्थितियां किसी त्रासदी से कम नहीं होतीं। लोग थकते हैं, सो जाते हैं, खर्राटे लेने लगते हैं, जिससे वे तो बिना चादर ताने बेफिक्र सोते हैं जबकि उनका साथी हो जाता है फिक्रमंद। नींद का मुकाम थकान दूर होते दूर होना उत्तम स्थिति है। कितने ही सुअक्कड़ बिना शोर के सो नहीं पाते हैं। शोर उनकी नींद के लिए संगीत का काम करता है। वे जोरदार आवाजों, चीखों, चिल्लाहटों और तेज खर्राटों की मौजूदगी में ही नींदयोग हासिल कर पाते हैं। उनकी नींद शोर में सोती है। शोर न हो तो जगती है। मन की कल्पना में बाधक नहीं बनती जबकि मेरी नींद विचारों की वाहक-संवाहक सभी कुछ है, परमतत्व है। सोने से भी नहीं सोते हैं कुछ विचार। वे विचार ही क्या जो सो जाएं। यहां तो विचार बेचारे अनिद्रा के मारे हैं, मारे मतलब सताए। लेखकों को अरसे से जगाए हैं। इससे त्रस्त है लेखकों का संपूर्ण विहान। विचार न हों तब होता है लेखक सबसे अधिक परेशान। मन को मथता रहता है कि विचार नहीं आ रहे क्या लिखूं? नींद नहीं आ रही, रचना की रचना कैसे करूं? जबर्दस्ती नहीं है रचना। रचना के साथ बलात्कार चलता भी नहीं है और कई बार तो गैंगरेप भी हो जाता है, जब सबके विचार एकआयामी पाए जाते हैं। न हों मन में सद्विचार तो कभी मत सोचो कि लिखना है। जबर्दस्ती के लेखन में वह शुद्धता कहां? उसमें वह खनखनाहट कहां? जो मन को भली लगे, खुद को भी पाठकों को भी। ऐसा लेखन तो खोटा सिक्का है, जिनके नाम कॉलम है, उनके लिए खनकाने की मजबूरी है। खोटा सिक्का हो या बुरा विचार, गले पड़ जाता है, तब छुटाए नहीं छूटता। आप ही इसका रहस्य बतला दो, मुझे यह जादू समझा दो।

नींद में विचार : दैनिक जनसंदेश टाइम्‍स 'उलटबांसी' स्‍तंभ 12 मार्च 2013 में प्रकाशित



नींद खूब आ रही हो और आंखों से ढरक जाए अथवा कम आ रही हो जिससे आंखें नींद के लिए तरस जाएं। दोनों ही स्थितियां भयावह होती हैं इससे स्‍वभाव में चिड़डि़ापन हावी हो जाता है। नींद और विचारों का चोली दामन का न सही, पर मियां बीवी वाला साथ जरूर होता है। विचार दिमाग में उस समय ही कुलांचे भरते हैं जिस समय सोने का समय हो। यह सोना स्‍वर्ण भले ही न हो पर शरीर के लिए नींद सोने के धातुई तिलिस्‍म से अधिक उपयोगी है। विचाररहित मन उजाड़ मरुस्‍थल से अधिक नहीं है। मन की महत्‍ता तभी है जब उसमें उत्‍तम विचारों का वास हो। नींद जब भरपूर तेजी में होती है तब बिना ब्रेक के आंखों के रास्‍ते शरीर पर से बेध्‍यानी में गुजर जाती हैशरीर के लिए घनघोर संकट की स्थिति होती है। वह व्‍यवहार को दुर्व्‍यवहार में बदल देती है। जब नींद की तेजी इतनी कम होती है कि पलकें भी भारी नहीं होतींतब पलकें नींद की आभारी नहीं हो सकतीं। संपूर्ण नींद के लिए दोनों स्थितियां किसी त्रासदी से कम नहीं होतीं। लोग थकते हैंसो जाते हैंखर्राटे लेने लगते हैं जिससे वे तो बिना चादर ताने बेफिक्र सोते हैं जबकि उनका साथी हो जाता फिक्रमंद। नींद का मुकाम थकान दूर होते दूर होना उत्‍तम स्थिति है। कितने ही सुअक्‍कड़ बिना शोर के सो नहीं पाते हैं। शोर उनकी नींद के लिए संगीत का काम करता है। वे खूब जोरदार आवाजोंचीखोंचिल्‍लाहटों  और तेज खर्राटों की मौजूदगी में ही नींदयोग को हासिल कर पाते हैं।  उनकी नींद शोर में सोती है। शोर न हो तो जगती है। मन की कल्‍पना में नहीं बनती है बाधक। जबकि मेरी नींद विचारों की वाहक और संवाहक सभी कुछ हैपरमतत्‍व है।
सोने से भी नहीं सोते हैं  कुछ विचार। वे विचार भी क्‍या जो सो जाएं। यहां तो विचार बेचारे अनिद्रा के मारे हैंमारे मतलब सताए। लेखकों को अरसे से जगाए हैं। इससे त्रस्‍त है लेखकों का संपूर्ण विहान। विचार न हों तब होता है लेखक सबसे अधिक परेशान। मन को मथता रहता है कि विचार नहीं आ रहे क्‍या लिखूं। नींद नहीं आ रहीरचना की रचना कैसे करूं।
जबर्दस्‍ती नहीं है रचना। रचना के साथ बलात्‍कार चलता भी नहीं है और कई बार तो गैंगरेप भी हो जाता है, जब सबके विचार एकआयामी पाये जाते हैं। न हों मन में सद्विचार तो कभी मत सोचो कि लिखना है । जबर्दस्‍ती के लेखन में वह शुद्धता कहांउसमें वह खनखनाहट कहांजो मन को भली लगेखुद को भी पाठकों को भी। ऐसा लेखन तो खोटा सिक्‍का हैजिनके नाम कालम है उनके लिए खनकाने की मजबूरी है। खोटा सिक्‍का हो या बुरा विचार गले पड़ जाता है तब छुटाए नहीं छूटता। आप ही इसका रहस्‍य बतला दो, मुझे यह जादू समझा दो।