वोट दो और मर जाओ : जनवाणी 25 दिसम्‍बर 2012 स्‍तंभ 'तीखी नजर' में प्रकाशित


आज का दिन बेहद बड़ा दिन। दिसम्‍बर माह की 25 तारीख। बड़े दिन में खुशियां होनी चाहिएं अनगिन। जबकि नहीं होतीं गिनने लायक भी। उंगलियों पर गिनने लायक भी हों तो तसल्‍ली हो जाए। दुख की वाट लग जाए। पर ऐसा होता नहीं है जबकि हर एक वोटर जरूरी होता है।  दिनों में भी भेद ही भेद, कोई भाव नहीं। दिन के आकार में भी हम नहीं ला पाए आज तक समाजवाद। दिन बड़ा है तो इस मुगालते में मत रहना कि पगार बड़ी होगी। पहले तीन शून्‍य जुड़ते थे तो अब चार शून्‍य जुड़ जाएंगे। एक दिन बड़ा बाकी दिन छोटे मोटे। चंद  दिन बढि़या और बाकी सब खोटे। दिनन दिनन का फेरदिन में भी हेर फेर। जिस दिन उपहार बांटे संताउस दिन बड़ा दिन बनता। जिसको हो डायबिटीज, उसका काहे का बड़ा दिन। मतलब दिन बड़ा बनता है मीठा खाने से। खुशियों का ग्राफ चढ़ता है मीठा खाने और खिलाने से। बाकी सब दिन छोटे और चोट्टे। चोट्टे में चोर नहीं,चोट हैचोट लगाने वाले छोटे से चींटे बड़े मुंहजोर हैं। सिर्फ इनका ही दिन बड़ा बाकी हिन्‍दू मुस्लिम सिख सब के सब चोर हैं। इसलिए इनके दिन छोटे। छोटे मतलब सिर्फ छोटेमोटे भी नहीं। दिन मोटा हो तो सेहत को राहत मिलती है। बिना ब्‍यायाम के यह राहत शारीरिक आफत बनती है। ठंड में नहीं कर पाते व्‍यायाम। इसलिए धूप हो चाहे कुहासा, सिर्फ आराम ही आराम। आराम हराम नहीं है। आराम सबका राम है। राम सबको भाता है परन्‍तु बड़े दिन के मौके पर संता बनता है। भगवान कोई भेद भाव नहीं करता है।

रजाई में सर्दी से बाहर निकलें तो करें कुछ काम तनिक व्‍यायाम लेकिन सर्दियां हैं। रजाईयों में ही मरने के दिन आ गए हैं। रजाई से बाहर निकल कर ठंड में मरने का रिस्क कौन ले। कंबल बांटने के दिन आए। रेवडि़यां बांटने नहींमूंगफली के साथ मिलाकर रेवडि़यां चाटने के दिन आए। चाटने पर रे‍वडि़यां काफी दिन चलती हैं क्‍योंकि कम घिसती हैं जबकि मूंगफली चाटने में नहींदांतों में भींच कर चटकाने में स्‍वाद आता है। दिल करो मजबूत बांटो रजाई। गरीबों को भी चाटने का मौका दो मलाई, न दे सको मलाई तो रजाई ही दे दो वह रजाई ओढ़कर ही मलाई का स्‍वाद ले लेगा। करेगा अब वह आपकी ही बड़ाई। बढ़ई होते तो सर्दी को लगाते ऐसा रंदा जिससे गर्माता आम आदमी और नेता वसूलता चंदा।  बलात्‍कारियों की गरदनों पर कसना चाहिए फांसी का फंदा। रस्‍सी वालों का भी चल निकलेगा धंधा। इंडिया गेट पर हुक लगाओउस हुक में रस्‍सी फंसाओ और रस्‍सी में फंसाओ गरदनअपनी किसने कहाबलात्‍कारियों की गरदन रस्‍सी के फंदे में धर दबोचो। नेता नहीं मान रहे हैं। उनका विश्‍वास पुख्‍ता है। आज बलात्‍कारियों को लटकाओगे और कल नेताओं को लटकाने के लिए बुलाओगे। जब वोटर नेता को फांसी देने के लिए पुकारेंगे तो आप उनकी बात मानोगे। इसलिए उस राह मत चलो। वह देश हुआ बेगाना। इस जहां में प्रत्‍येक कुकर्मी के लिए फांसी वाया फांसीगाना। गाने को गीत बनाओ। वोट को मीत बनाओ। वोट लो और ढकेल दो वोटर को। इसे वोटर की अस्‍मत लुटना कहते हैं। वोटर हैं इसलिए सब सहते हैं। वोट देने से पहले नेता कहते हैं। वोटर मेरे दिल में रहते हैं। बाद में कहते हैं ‘वोट दो और मर जाओ’।

खुद नहीं मरोगे तो मार दिए जाओगे। इंडिया गेट पर पानी की फौहार से, पुलिस के डंडों की धार से। पुलिस सुनार नहीं लौहार है। एक ही हथौड़ी से सबको भांजती है। आप चाहे आम आदमी हो, चाहे मीडियामैन हो, कैमरामैन हो, सबके हथौडि़यां पड़ेंगी और कचौडि़यां समझ कर सबको ही खानी पड़ेंगी। आप महिला हो, बुजुर्ग हो, बाल हो, बच्‍चे हो, हथौडि़यां खाने में कच्‍चे हो। खूब खाओ पेट भर भर कर हथौडि़यां समझ कर रेवडि़यां। हाजमा खराब होता है तो होने दो। खिलाने वालों ने हेलमेट पहने हैं और पहन रखी हैं वर्दियां। इसलिए उनकी सर्दियां बनी हैं गर्मियां। उस गर्मी के ताप से अपना प्रताप दिखाएंगे।

वायु के युवा होने की उलटबांसी : जनसंदेश टाइम्‍स 25 दिसम्‍बर 2012 के स्‍तंभ 'उलटबांसी' में प्रकाशित



एक भागा जा रहा है और दूसरा दौड़ा आ रहा है। भागने दौड़ने का यह आयोजन रोजाना की जिंदगी में घटता है। घटते हुए भी सिमटता नहीं, फैलता है। साल के अंत में इसमें अद्भुत तीव्रता आती है। भागना और दौड़ना, किसी को पकड़ना और पहले से पकड़े हुए को छोड़ना, गति के वे रस हैं कि इनकी लोकप्रियता में ‘आने’ की प्रबल भागीदारी है। पंखे की तरह घटनाएं घटती रहती हैं और इस बहाने साहित्‍य रचा जाता है। पंखा वहीं स्थिर रहता है। एक ही जगह टंगा हुआ घूमता रहता है। वहीं लटके चिपके सारी दुनिया का चक्‍कर लगा लेता है। वह न भी घूमे तब भी प्रेरणा लेने वाला तो उसे हासिल कर ही लेगा। चाहे वह अपनी सूंघन-शक्ति के बल पर उसे पंखे की वायु से ही युवा रूप में बदल ले। वायु जब उर्दू माफिक पढ़ने पर युवा हो जाती है, तब प्रचंड अंधड़ कहलाती है। उसके वेग से दिग्‍गज धराशायी हो जाते हैं। अभी बीते सप्‍ताह ऐसा एक अंधड़ गुजरात में आया, जिससे केन्‍द्र की धुरी की बहुत दुर्गति हुई।  रही सही कसर, बस में बलात्‍कार ने पूरी कर दी।

विचारों की उत्‍पत्ति जब हो रही होती है, तब नींद पास फटक नहीं सकती है। आप चाहे कितनी ही कोशिश करके देख लें। न नींद होगी, न नींद के विचार होंगे और मन जो सोने के बाद, उस तरह के सपनों में उछल कूद मचाता है, वह मन में ऐसे ऐसे अनूठे विचारों का वायस बनता है कि अचंभित रह जाना पड़ता है। मन में उछल-कूद मचाते विचारों को सहेजने के लिए मन का जागना बहुत जरूरी है। इन विचारों की मौत न हो, इसके लिए स्‍वप्‍न नहीं, नींद का न होना अनिवार्य शर्त है। आप रात में नींद आने तक जितना भी सोचते हैं, अगर उसे लिखकर नहीं रखेंगे तो बामुश्किल दो चार प्रतिशत भी याद रख पाएंगे, इसमें मुझे संदेह है। अपने तईं मुझे पूरा विश्‍वास है क्‍योंकि मैं न लिखूं तो सब भूल जाता हूं। बिसराने के इस जोखिम से बचने के लिए लिपिबद्ध कर लेना या ध्‍वनि रिकार्ड करना सर्वोत्‍तम माना गया है और इसके मनवांछित परिणाम देखे गए हैं।

जितनी भी कृतियों की रचना हुई है, वे सब रात के अंधेरे की दिव्‍य उपज हैं। चाहे वे प्रेमचंद की कहानियां हों, या ‘हार की जीत’ कहानी। चेतन भगत के उपन्‍यास उनकी रात की चेतना की जीवंत मिसाल हैं। आजकल महुआ माजी चर्चा में है, वे भी यह स्‍वीकार करती हैं कि रात में लिखने से, सृष्टि के रचने जैसी दिव्‍य अनुभूति का अहसास होता है। जबकि उनका लेखन संदेह के घेरे में घिर गया है, क्‍या मालूम इस वजह से अंधेरे के वजूद पर भी प्रश्‍नचिन्‍ह लग जाए। उन्‍होंने नहीं लिखा, उन्‍होंने तो सिर्फ पहले से रचे हुए को अपने तरीके से भुनाया है। इस भुनाने को बाजारवाद का प्रभाव कहा जाएगा। आप कितना ही अच्‍छा लिख लें किंतु उसे पाठकों तक न पहुंचा पाएं अथवा पाठकों तक तो पहुंचा दें परंतु विवाद न करवा पाएं, तो सब करा-धरी और लिखा-पढ़ी फिजूल है। बाजार की दिशा विवादों से तय होती है। विवाद वह कार है जो बाजार रूपी सड़क पर सर्राटे से सरपट दौड़ती है, विवाद रूपी कार की गति, कहो कैसी रही ?

सीएम के ह्यूमर सेंस : दैनिक ट्रिब्‍यून 'खरी खरी' स्‍तंभ 23 दिसम्‍बर 2012 में प्रकाशित



कहा गया है कि अपने उपर व्‍यंग्‍य करना और सहना सबसे कठिन कार्य है और आजकल सीएम के हालिया बयान से तो यही साबित होता है कि वे इसमें सिद्धता हो चुकी हैं। चार रुपये में एक व्‍यक्ति के लिए संतुलित तो क्‍या, असंतुलित भोजन की कल्‍पना करना भी कठिन है, हासिल करने की तो बात ही छोड़ दीजिए। जबकि सीएम ने हकीकत में ब्‍यान जारी कर दिया है। आपको इससे आपत्ति हो तो हो, वे बाद में कह देंगी कि दिल्‍ली क्‍या देश के लोगों में तनिक सी भी कॉमेडी सेंस नहीं है जबकि मन भीतर से खुश न हो तो 600 रुपये क्‍या 6000 रुपये का एकवक्‍ती भोजन भी कर ले, तब भी सब बेकार है। खुश रहना वह कला है कि आपके विरोधियों का गला इस बाण से खुद-ब-खुद कट जाता है। आपकी खुशी देखकर अगर सामने वाला नाखुश नहीं हुआ, उसके आचार-व्‍यवहार में इसकी झलक नहीं मिली, उसके फेस पर दुख ने पक्‍का कब्‍जा नहीं जमाया, तो सच मानिए ऐसी खुशी व्‍यर्थ है, सचमुच इसका कोई अर्थ नहीं है। खुद की खुशी तब ही पूरी माननी चाहिए जब सामने वाला उसके कारण खुदकुशी करने पर उतारू हो जाए। और जब वह खुदकुशी कर ले तब तो आपकी खुशी का पारावार ही नहीं रहना चाहिए।
खुशी के साथ हंसी का खास रिश्‍ता है। जिसमें दांतों की उल्‍लेखनीय साझेदारी होती है, वह शो रूम है हंसी का और भंडार आपके मन में है। अगर मन में हंसी का भंडार न हो तो बाहर के दांत काटने को दौड़ते दिखते हैं। हंसना तो कुत्‍ते भी चाहते हैं किंतु हंसने की कोशिश में भी उनके काटने के पैगाम नजर आते हैं। दांत अगर ऐड़े तिरछे मैले कुचेले हों तो हंसी, हंसी होते हुए भी डरावनी हो जाती है। शुक्र है कि नेताओं की फितरत चाहे भय पैदा करती हो किंतु जाहिरा तौर पर हंसी अभी डरावनी नहीं हुई है। अगर ऐसा हो गया होता तो समझो कयामत ही आ गई होती।
नतीजतन, आपको तुरंत नाचने और खुशी को पूरी शिद्दत से मनाने के लिए सड़कों पर उतर आना चाहिए। यही लक्षण जवानी के भी हैं। जवान लोग भी यही किया करते हैं, इससे इतर जवानी दिखलाने के लिए ऐसा तो है नहीं कि राह चलते किसी का चुंबन ले लिया और कोई ऐसी वैसी कैसी कैसी हरकत कर डाली। अगर हरकत कर डाली फिर जो जिस जवानी का मजा आता है, उसे हलकट जवानी कहा जाता है, जवानी की इस अदा के भी खूब चर्चे हैं आजकल।
सच मानिए तो सीएम या पीएम को ऐसा होना बनता है कि जो शून्‍य की अहमियत को समझने और समझाने की घोर काबलियत से लवरेज हों। वे स्‍वीकार करते हों कि एक दो या तीन शून्‍य खर्च करने से प्‍याली में कोई बड़ा तूफान नहीं आ जाएगा। अब शून्‍य फिगर के बांयी ओर या दांयी ओर हो, नेताओं को इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। एक एक वोट को उठाने के लिए वह कितना ही नीचे गिर सकते हैं और उड़ना पड़े तो आसमान में सबको साथ लेकर उड़ सकते हैं, जैसे कि सीएम ने 600 रुपये में महीने भर 5 सदस्‍यों के परिवार के लिए संतुलित भोजन की कल्‍पनातीत उड़ान को अमलीजामा पहनाने की कोशिश की है। आप उनकी तेजतर्रार बुद्धि का लोहा मानना तो दूर, उनकी खिल्‍ली उड़ाने में मशगूल हो गए हैं और उनके प्रयासों को बबूल के कांटे बतलाने से भी गुरेज नहीं कर रहे हैं। अगर वे इतनी कंटीली होती, जबकि 75 बरस की उम्र में कोई कितना कंटीला रह जाता है इसे सब जानते हैं, तो क्‍या लगातार 14 बरस से सीएम पद पर अपनी पैठ जमाए रह पातीं।
मेरा यह भी मानना है कि दिल्‍ली के किसी सफल सीएम को ही देश का पीएम बनाया जाना चाहिए। उनकी दी गई दलीलें चाहे थोथी हों किंतु चने की तरह घणी बाजती तो नहीं हैं। और बाजती भी हैं तो उससे पार्टी के वोट बैंक में इजाफा ही होता है। अब भला बतलाइए कि इतनी दूरंदेशी क्‍या कम है कि मात्र 600 रुपये में आप एक के साथ चार फ्री वोट भी हासिल करने में सफल हो जाएं। जबकि इससे पहले शराब की बोतलें बांट कर परिवार का सिर्फ एक वोट ही मिल पाता था। अब परिवारों को यह अहसास होने लगा है कि सरकार सिर्फ शराबियों की ही नहीं, उनके परिवार के बारे में भी सोचती है और यह सोचना क्‍या कम है। आपको कैसा लग रहा है यह फसाना, जरूर बतलाना कि कहो कैसी रही ?

इंडिया की हंडिया डुबायेंगे : डीएलए 19 दिसम्‍बर 2012 अंक में प्रकाशित

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एफडीआई और वालमार्ट से सब रिश्‍तेदारी जोड़ने में जुट गए हैं। बवाल मचा हुआ है। कोई मित्र उन्‍हें चच्‍चा बतला रहे है तो कोई उन्‍हें दद्दू कह रहे हैं। मेरे एक मित्र उनके साथ वाली को भौजी कहते नहीं अघा रहे हैं। दूसरे गरीब की जोरू बतला रहे हैं। मेरी मानो तो पहली बार इसे अमीर की बेगम बनने का मौका मिला है। सो खुद बेगम हो जाएंगी और अपने चाहने वालों को गमों से सराबोर कर देंगी। अभी तक तो यह भी नहीं फाईनल हुआ है कि वे समलिंगी हैं अथवा उभयलिंगी। कुछ कुछ मुगालता फिज़ा में महका हुआ है।  फिर यह क्‍यों नहीं बतलाते कि अब तक इनके अपने वे कहां पर छिपे बैठे थेबैठे होते तो दिखलाई दे जातेहो सकता है छिपे लेटे हों। जो भी होंआखिर वे कहां थेक्‍या किसी कुंभमहाकुंभ में बिछड़े थे या फिरंगी आजादी देते समय किसी गोपनीय डील के तहत उन्‍हें अपने साथ ले गए थे। अब क्‍यों आजाद कर दिया है। फिर भी इतना तो पक्‍का तय है कि एफडीआई नहीं किसी की माई है। जो बच्‍चों के हित के लिए काम करेयह तो सबको हिट ही करेगी।
सोचा होगा कि अब तक खूब मालदार हो गया होगा इंडियाबन जाओ चच्‍चा या दद्दू और खाली करो इंडिया की हंडिया। हंडिया तब तक ही भाती है जब तक उसका ढक्‍कन नहीं खोला जाता। ज्‍यों ही ढक्‍कन खुलता है सारी असलियत नमूदार हो जाती है। इससे कई बार इज्‍जत का फलूदा बन जाता है। फलूदा न बन पाए तो ये घनिष्‍ठ नातेदार चच्‍चा या दद्दू अपनी हरकतों से बाज नहीं आते हैं और इज्‍जत को लूटने में लग जाते हैं। यही तो इनकी आघातें हैं।  दरअसलये चच्‍चादद्दू कोई और नहीं अंकल’ ही हैं और इन्‍हें मुगालता रहा है कि इनमें अकल बहुतायत से लबालब है। अंकल’ कहलवाते हैं और अकल’ अपनी भिड़ाते हैं। नब्‍बे प्रतिशत को मूर्ख बतलाते हैं। अपनी इस तथाकथित अक्‍ल के बूते उन्‍होंने नेताओं को तो फांस ही रखा है अब किसानों को भी उलझाने का उपक्रम चालू कर दिया है। काफी हद तक उनकी अक्‍ल के घोड़ों में रवानगी आ गई है। रही सही कसर गति उनके नाते-रिश्‍तेदारी खोजक यार पूरी कर रहे हैं।
जहां तक मालदार होने का मामला है तो इसमें एक ही राय है कि जहां होता है माल, वहीं पर वॉलमार्ट की आर्ट निखरकर सामने आती है और वहीं पर कला के गलियारे ओपन होते हैंवहीं पर भ्रष्‍टाचार अपने बवाल से सबको मोहित किए रहते हैं। घपले-घोटालों की किस्‍मत खुल खुल जाती है। ईमानदारी को अपनी नानी,चाची, दादी सब याद आती हैं और नॉस्‍टेल्जिया’ सक्रिय हो उठता है। अतीत की यादें सोडे में उफान की मानिंद सुर्खियों में कहर बरपाती हैं। चैनलों को जोर का झटका पूरी ताकत से लगाने का कार्य मिलता है। मालदार की ऐसी तैसी करने के नाम पर किसानों और पब्लिक का बेड़ा गर्क किया जाता है।
जबकि सही मायनों में एफडीआई की सटीक व्‍याख्‍या फुल ड्रामा इन इंडिया’ की जा सकती है परंतु इसे फॉरेन डायरेक्‍ट इंवेस्‍टमेंट’ कहकर सदा से सबको लुभाया जाता रहा है। जबकि इस असलियत की कलई कुछ लोगफेल्‍ड डेमोक्रेसी इन इंडिया’ का नाम देकर खोलते हैं और फटाफट डकारो इंडिया’ कहकर इनकी नीयत पर ही सवाल उठा देते हैं। सोशल मीडिया पर इनकी फजीहत जारी है किंतु संसद में सांसद इनकी नित नई गोलाईयां उभारने में बिजी हैं। चक्‍करघिन्‍नी की तरह घूमते देश के सिर पर कभी कोई इस बहाने और कभी उस बहाने से सवार हो जाता है और लूट कर किसी भी स्‍टेशन पर जानबूझकर छूट जाता है फिर नए लुटेरे मौका देख सवार हो जाते हैं। लूट का खेल जारी है। रही सही कसर वे नोंच खरोंच कर पूरी कर रहे हैं।
पब्लिक और किसान हैरान हैंपरेशान हैंमाल मिलेगा या उनके और माल के मध्‍य में वॉल खींच दी जाएगी। वाल पारदर्शी शीशे की होगीमाल खूब दिखेगालगेगा कि इस बार घर जरूर भरेगा परंतु जब किसान उस माल को लेने के लिए आगे बढ़ेगा तो शीशे से टकराएगा और वॉलमार्ट का शीशा नहींइस देश का किसान चूर चूर हो जाएगा। किसान की नियति टूटना ही है और इस बार बिखर जाएगा कांच की किरचों की मानिंद। रिटेल की टेल हनुमान की पूंछ की तरह लंका जलाती दिखाएगीसबको लेगी लपेटपेट पर देगी तीखी और गहरी चोट। देश के शरीर पर घाव दर घाव होते रहेंगे और उससे भी तेजी से वस्‍तुओं के भाव चढ़ेंगेइंडिया की हंडिया खाली करने की यह क्रियाकहो कैसी रही ?

रावण से फेसबुक पर मुन्‍नाभाई की लाइव चैट : डेली हिंदी मिलाप 11 नवम्‍बर 2012 के धनतेरस परिशिष्‍ट 2012 में पुरस्‍कृत एवं प्रकाशित



बीती रात रावण चैट पर था। तभी खुलासा हुआ कि रावण ने भी फेसबुक पर अपना खाता खोल लिया है। नीचे ज्‍यों की त्‍यों पूरी बातचीत पेश है। प्रश्‍न सभी मेरे हैं और उत्‍तरों पर रावण का कॉपीराइट है। रावण ने मुझे ऑनलाईन पाकर मेरे चैटबॉक्‍स में लिखा ‘हाय’। प्रोफाइल पर रावण लिखा देकर मैं चौंक गया  :

मैं : कौन रावण  कैसे हो सकता है ?  
रावण : क्‍यों नहीं हो सकता, जब तक फेसबुक पर खाता खोलने के लिए किसी पहचान पत्र और अपने चित्र की जरूरत नहीं है। तब तक मैं ही नहीं, तुम सभी से फेसबुक पर मिल सकते हो मुन्‍ना। पिछले दिनों बिग बी ने खाता खोला है जबकि इससे पहले  कंस, दुर्योधन, कृष्‍ण, राधा, सीता, राम, ताड़का, जटायु, विभीषण इत्‍यादि सभी इस सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं।
मैं : मुन्‍ना नहीं, मुन्‍नाभाई कहो रावण    
रावण : जो जैसा कहता है वह वैसा ही सुनता है, मुझे भाई कहते तुम्‍हें शर्म आई इसलिए मैं तुम्‍हें भाई कैसे कह सकता हूं। पहल तुमने ही की है। मैं अवाक् रह गया, सचमुच में रावण से ही ऐसे प्रत्‍युत्‍तर की उम्‍मीद की जा सकती थी। विकट का ज्ञानवान है रावण। मुझे स्‍वीकारना ही पड़ा। क्‍या आपके दसों सिरों में दिमाग है ? 
रावण : इसमें भी शक ? जब एक सिर में दिमाग रह सकता है तो दस सिरों में क्‍यों नहीं। आजकल बहुमंजिली इमारतों का जमाना है।
रावण ने यह कहकर मुझे एक और जोरदार पटकनी दे दी।
मैं :  पर तुम्‍हें तो राम ने तीर से मार दिया था न ? 
रावण : जब आजकल हेलीकॉप्‍टर के गिरने से जानें बच सकती हैं तो एक तीर की क्‍या औकात, रावण की पूरी जान ले सके। 
मैं : पूरी का क्‍या मतलब है ? 
रावण : पूरी से आशय है कि मैं थोड़ा भी नहीं मरा, पूरा जिंदा हूं।  
मैं : मतलब घायल भी नहीं हुए ?  
रावण : मैं घायल क्‍या होता बल्कि इंसान मेरा कायल हो गया है जिसे आजकल फैन कहते हैं और सब मिलकर मुझे ऑक्‍सीजन की फूंकें दे रहे हैं।  तुम जितनी बार मुझे फूंकते हो, मेरे निराकार शरीर को उससे प्रचार रूपी ऑक्‍सीजन मिलती है।  जो मुझे मारना चाहता है, वही मुझे जीवन दे रहा है। इंसान जिस दिन मुझे फूंकना बंद कर देगा, उसी दिन मैं विस्‍मृति के गर्त में दफन हो जाऊंगा। लेकिन मुन्‍नाभाई तुम किसी से मेरे इस रहस्‍य का पर्दाफाश मत करना। मुन्‍नाभाई सं‍बोधित करते हुए रावण की एक और कलाबाजी से मैं रूबरू हो रहा था।
(उसका लिखना जारी था) मेरे होने से बाजार है। बाजार में व्‍यापार मेरे होने के आभास से है। सिर्फ फेसबुक ही एक आभासी दुनिया नहीं है। करोड़ों अरबों का काम मेरे दहन के नाम पर हो रहा है। मैं सशरीर न होते हुए भी, किसी की रोजी हूंकिसी के लिए रोटी हूं। किसी के लिए बिजनेस हूं और काले धन का द्वार हूं। देख लो, कोई मेरे पुतले बनाकर कमा रहा है। कोई तीर-कमान बनाकर बेच रहा है। मुखौटे बना रहा है कोई तो कोई फूंकने का तमाशा दिखाकर धन उगाह रहा है। कौन कहता है कि मैं जल रहा हूं। मैं तो आप सबके मन में पल रहा हूं।  आजकल के बाजारवाद में सब जगह विभीषण अलग-अलग रूपों में मौजूद है। मुझे जिंदा रखने में भी बाजार का स्‍वार्थ है ? 
मैं : बाजार का स्‍वार्थ मैं समझा नहीं।  रावण ही हो न तुम ? बिग बॉस तो नहीं हो !
(रावण की फेक आई डी बनाकर मुझसे चैट कर रहा हो, मुझे शक हुआ जिसे रावण ने भांप लिया।)  
रावण : बिग बॉस को अपने शो यानी कलर्स रूपी  लंका से कहां फुरसत है, उसने भी सही समय देखकर अपना लंका प्रकरण मतलब बिग बॉस शो का प्रसारण शुरू किया है। 
(रावण की बुद्धि पर फिर मुझे रश्‍क हो आया था।) आजकल बाजारवाद है सब चाहते हैं कि बाजार को मेरे संग साथ से नित नए आयाम मिलेंवे नए सोपान गढ़ें।
मैं : लेकिन तुम तो बुराईयों के मौलिक रूप हो।    
रावण : मुन्‍ना, बाजारीकरण में बुराईयां व्‍यापार को बड़ा बाजार और बेशुमार धन देती हैं, नहीं जानते या न जानने का ढोंग कर रहे हो। (रावण ने ताना मारा)।
मैं :  लेकिन तुमने तो सीता को बुरी नजर से देखा और किडनैप किया।  
रावण : मुन्‍ना सुनो, मैंने रेप तो नहीं किया ? पर आज यह सब हो रहा है। लंका काल में बुराईयों का मानकीकरण था, आज खुला अमानवीयकरण है। उसी अमानवीयता से चारों ओर संवेदनहीनता की पराकाष्‍ठा है।  चैनल खुद को सुर्खियों में लाने और उसकी टीआरपी को सबसे ऊपर मानकर मनमाना आचरण कर रहे हैं।  अपने चरणों से प्रत्‍येक अच्‍छाई को दबा दबाकर कुचल रहे हैं और इसमें राम की पूरी सहमति और मिलीभगत है।  
बाजार में जमने के लिए ऐसे अनेक यत्‍न किए जाते हैं। इससे भारत रत्‍न और विश्‍व रत्‍न पाने की योग्‍यता हासिल करते हुए नोबल हथिया लिए जाते हैं। बाजार सम्‍मान और पुरस्‍कारों के पीछे  दौड़ रहा हैजिसकी चर्चा हैजो सुर्खियों में है, उसे सच्‍चाई से कोई सरोकार नहीं रह गया है। प्रिंट मीडिया ने भी उस ओर से अपनी आंखें फेर ली है, धनवेदना से समस्‍त जग त्रस्‍त है। धनोबल सर्वोपरि हो गया है। रही सही आस अब न्‍यू मीडिया से जगी है किंतु उस पर भी सरकार की भृकुटि तनी है, कुल्‍हाड़ी चलने ही वाली है। बेईमानी की भरपूर डिमांड है, ईमानदारी रिमांड पर है। पानी की चर्चा चल रही है। पानी और लहू बेकार में बह रहा है। न पानी और न लहू में अब उबाल आता है। शब्‍दों के जाल से बवाल मचाया जाता है। बेतुकी बयानबाजी की जाती है।
(मुझे अहसास हो चला था कि जिससे मेरी चैट जारी है, वह रावण ही है।  पुष्टि हो चुकी है कि रावण झूठ नहीं बोलता। वह सदा सच के खेल ही खेलता है) फिल्‍मों में मेरी प्रवृत्तियों का इस्‍तेमाल बतौर खलनायक होता है। दीवाली भी मुझसे है। दिवाला भी मुझसे है। मैं दशानन रावण त्‍योहारों के केन्‍द्र में हूं ।

मैं : लेकिन तुम तो हर साल चौराहे पर सबके सामने जला दिए जाते हो  ?
रावण : यह इंसान का स्‍वांग है, असली रावण कभी नहीं जला हैन जलेगा। पर इससे सबको रोजगार अवश्‍य मिल रहा है। इंसान को जो बहाना चाहिएवह बहाना हूं मैं। बुराईयों का अफसाना बताया जाता है मुझे। सीता खुश है कि मेरी वजह से चर्चा में है और चर्चा में बनी रहती है। लोकप्रियता का ही बाजार है। सब इसी के इर्द गिर्द चक्‍कर काट रहे हैं। जो लगता तो दुख हैदरअसल वह पब्लिसिटी का सुख है। वरना तो सबने मुझे भुला दिया होता।

राम का नामगांधी का नाम इसलिए याद रहा है क्‍योंकि रावण और उसकी कुत्सित वृतियां साथ जुड़ी थीं। दुख न हो तो सुख को पूछने वाला कोई नहीं मिेलेगा। रावण नहीं होगा तो कौन रामसब पर लग जाएगा विराम। समझ गया था मैं, यह अंतहीन अनवरत यात्रा हैसच्‍चाई है जिसने सबको लुभाया है। बुराईयों का मिटाना भी उत्‍सव है। उत्‍सव इंसान की जिंदगी का सच है।  सच्‍चाई को पाना भी पर्व है। बुराई को भुलाना भी गर्व है। दोनों न होते तो दशहरा न होतादशहरा न होता तो दीवाली न होती। मेरे मरने पर दशहरा और राम के जीतने पर दिवाली है। दरअसल जनता की जेब खाली करने की यह रस्‍म बना ली है।
{रावण ने अचानक लिखा कि उसे इलाके में हो रही रामलीला का उद्घाटन करने जाना है और हरी बत्ती एकदमसे गुल हो गई....मैं सोचता ही रह गया.....}

पैदल चलने के लाईसेंस बनेंगे : पंजाब केसरी 18 दिसम्‍बर 2012 अंक में प्रकाशित



आप पैदल चलना जानते हैं और आपके पास लाइसेंस नहीं है तो सावधान हो जाइए। दिल्‍ली में पैदल चलने वालों के लिए लाइसेंस अनिवार्य होने वाला है। बहरहाल, शुरूआत में एक वर्ष की अवधि के लिए इस लाइसेंस की कीमत सिर्फ एक सौ रुपये सालाना रखी जाएगी। यह लाइसेंस सबको एक ही कीमत पर मिलेगा, मतलब बूढ़ेबच्‍चेजवान हों या बीमार सबको एक ही तराजू पर तोला जाएगा। तोलने का यह कार्य नगर निगम करेगी। इसके आरंभिक दौर में अभी घोड़ेघोडि़योंबग्घियों पर एकमुश्‍त चार हजार रुपये वसूले जाने की योजना तैयार है और बस लागू होने ही वाली है। इस योजना का अगला चरण पैदल चलने वालों की जेब पर रखा जाएगा। इसके बाद साईकिल चालकों के लिए भी लाइसेंस लेना अनिवार्य किया जा रहा है। इसके लिए मात्र पांच सौ रुपये का खर्च आएगा और लर्निंग लाइसेंस के लिए सिर्फ एक महीने के लिए एकमुश्‍त दस रुपये ही चुकाने होंगे और सिर पर लालरंग से चिन्हित एल’ लगाने के लिए एक विशेष टोपी पहननी होगी। नगर निगम की एक चहेती कंपनी ऐसी पांच टोपियां 250 रुपये में मुहैया करवाने के लिए तैयार हो गई है।
अभी तक सिर्फ रिक्‍शे पर लाइसेंस जरूरी थालेकिन नए निर्णय में रिक्‍शा चालकों को भी लाइसेंस लेना होगा और यह व्‍यवसायिक श्रेणी में जारी किए जाएंगे जिनका सालाना शुल्‍क एक हजार रुपये होगा। निगम सोच रही है कि इससे रिक्‍शों की संख्‍या में कमी आएगी और भीड़ भरी सड़कों पर यातायात का संचालन सुचारू रूप से हो सकेगा। पांच बरस तक के बच्‍चों को पैदल चलने के लाइसेंस से छूट रहेगी बशर्ते कि वे दस वर्ष या उससे अधिक की आयु के किसी अभिभावक के साथ पैदल चल रहे हों। जो बच्‍चे अकेले घूमते पाए जाएंगे उन्‍हें निगम जब्‍त कर लेगी और छोड़ने के लिए एक सौ रुपये का जुर्माना वसूलेगी। दो घंटे से अधिक देरी से अपने बच्‍चों को लेने आने वाले अभिभावकों से 500 रुपये उनकी खुराक के नाम पर वसूल किए जाएंगे। चाहे बच्‍चे को निगम की ओर से एक अदद टॉफी भी न दी गई हो।
निगम के इस अभूतपूर्व कदम की वित्‍त मंत्री ने प्रशंसा की है और गृह मंत्री ने विश्‍वास जताया है कि इससे बच्‍चों के खोने की घटनाओं में कमी आएगी क्‍योंकि जब बच्‍चे को अकेला छोड़ा ही नहीं जाएगा तो उनके खोने का तो सवाल ही बेमानी है। इससे पुलिस पर भी बोझ कम होगा किंतु उन्‍होंने जुर्माना वसूलने के लिए लगाए जाने वाले पुलिसकर्मियों के कार्य के बारे में कोई टिप्‍पणी नहीं की है। इससे ऐसा लगता है कि उन्‍हें अपने पुलिसकर्मियों पर भरोसा है कि वे अपने चाय-पानी का खर्च इससे खुद ही निकालने में कामयाब हो जाएंगे।
इसके अनूठी योजना के सफल होने के बाद आवारा जानवरों के पैदल चलने पर इस प्रक्रिया को व्‍यवहार में लाया जाएगा। जिससे सड़कों पर आवारा पशुओं के घूमने पर लगाम लग सके और कुत्‍तों के इंसानों को काटने की घटनाएं में कमी आए। अभी यह स्‍पष्‍ट नहीं किया गया है कि आवारा पशुओं को पकड़ने पर जुर्माना कौन देगा, हो सकता है कि इसे पुलिस और निगम के विवेक पर छोड़ दिया जाए और वे आजाद हों कि इसके लिए वे राह चलते किसी को भी पकड़ उस पर आरोप मढ़कर वसूली कर सकते हैं। अभी पक्षियों के उड़ने और चलने के संबंध में और कौवों इत्‍यादि के शोर मचाने पर भी राजस्‍व वसूलने की कई योजनाएं विचाराधीन हैं। देश को खुशहाली की राह पर ले जाने वाले इन कदमों में भरपूर दम है, इसलिए इसके विरोध किए जाने का कोई समाचार अभी तक नहीं मिला है। 
चार साल पहले दिल्‍ली की सीएम ने पैदल चलने वालों पर चलते समय सतर्क रहने के लिए उपदेश झाड़ा था। कयास लगाया जा रहा है कि यह उसी आदेश की अगली कड़ी है। आपके पास भी इसे अमली जामा पहनाने और देश को विकास की ओर ले जाने के कई सूत्र होंगे तो देर किस बात कीआप भी ऐसे मशविरों को सरकारहित में साझा कीजिए और देशभक्त सिद्ध होने का मौका मत गंवाइए 

मौसम पीएम पीएम हो रहा है : जनसंदेश टाइम्‍स 18 दिसम्‍बर 2012 के उलटबांसी स्‍तंभ में प्रकाशित



मौसम पीएम पीएम हो रहा है। इतना धांसू कि जो मौन पीएम हैंलगता है कि इस सुगबुगाहट भरी चिंगारी से उनकी भी बोलती खुल जाएगी। जब तक किसी को खतरा नहीं महसूस होता वह चुप रहने में ही भलाई समझते और मलाई गटकते हैंकई बार ओठों पर चुपड़ भी लेते हैं। खतरा सिर पर हो तो बड़ों बड़ों के मुंह खुल जाते हैं और जोरों की चिल्‍लाहट और चीख पुकार मच जाती है। कोई राम नाम की गुहार लगाता हैकोई देशभक्ति के तराने गाता हैकोई जोर जोर से बाजे बजाता है।
वैसे यह पुकार काफी दिनों से मच रही थी, पर  चूँकि  लाउडस्‍पीकर (ध्‍वनि विस्‍तारक यंत्र) नहीं लगाया गया था,इसलिए चीख को विस्‍तार नहीं मिल रहा था। अब जब चीख को विस्‍तार मिला है तो वह बिस्‍तर से उठ खड़ी हुई है। अपने खड़े होने के चक्‍कर में उसने कितनों को बिस्‍तर पर गिरा और लिटा दिया है। जो गिरे या लेटे हैं, सोच रहे हैं कि वे आसमान में उड़ रहे हैं। कहीं मोदी मोदी की आवाज आ रही हैमानो अभी पीएम गोदी में कुर्सी के मुगालते में बैठ ही जाएंगे। कहीं मुलायम मुलायम की घटाएं छा रही हैंजैसे माखन का उत्‍पादन वहीं से होता है। कहने वाले तो राहुल राहुल भी कह रहे हैं पर सच्‍चाई यह है कि अभी पीएम की सीट वेकेंट नहीं है और न ही वीकेंड पर वेकेंट होने वाली है। फिर भी न जाने क्‍यूं अभी से इतना शोर वातावरण को प्रदूषित कर रहा हैसुषमा भी निराली और अगाड़ी हो गई है। यूं तो कोई भी सीट खाली हो तो देश में सीट की तरफ लपकने - झपटने वालों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है। एक चपरासी की खाली कुर्सी भी कयामत ढा देती है। बाबू चाहे सरकार में हो या बैंक में – सब बेरोजगार उसी तरफ दौड़ लगाना शुरू कर देते हैंइस दौड़ने को ही तो कंपीटीशन कहते हैं। जाहिर है कि सब बाबू बेकाबू हुए जा रहे हैं। तराजू का प्रयोग बंद कर दिया गया हैसोअपना वजन सबको अधिक लग रहा है। सबसे भारी हैं वेसब उनके ही आभारी होंगे।
जमाना बाजार का भी है और ब्‍लैकमेलिंग का भीजान पहचान का भी और खुराफात का भी। माहौल इतना गरम है कि कड़ाके की सर्दी में भी तपता तवा हो रहा है जो भाप बनाकर उड़ा देता है और जो उड़ता हैवह उड़ जाता है। बहरहालपीएम पद का ताप सबको अपनी अपनी ओर खींच रहा है। सब दोनों हाथों से उलीचे जा रहे हैं लेकिन इसे खाली करने में भी सतह तक भरने का भाव भरा हुआ है। इसे कहते हैं कि खाली करो तब भी हवा तो भर ही जाती है। नतीजतनजितने भी पीएम पद के दावेदार हैंवे सब अपने भीतर हवा भरे हुए हैं और ख्‍यालों ख्‍वाबों में विचर रहे हैं पर आप क्‍यों इन्‍हें देख विलोक सुन कर कुढ़ रहे हैं कहो कैसी रही ?

गधे घोड़े उल्‍लू की मूर्खीय व्‍यथा : मिलाप हिंदी 18 दिसम्‍बर 2012 अंक में प्रकाशित


नब्‍बे फीसदी भारतीय बेवकूफ हैंन्‍यायमूर्ति काटजू के इस कथन का सकारात्‍मक पक्ष भीहै कि बेवकूफ बहुमत में हैं। लोकतंत्र ही बहुमत, बहुमत ही लोकतंत्र है, इसके मुकाबले न ठहरा कोई तंत्र है। मतलब लोकतंत्र में बहुमत की तूती बोलती है और पुंगी बजती है। सोचिए भला, सिर्फ दस प्रतिशत बु‍द्धिमान क्‍या घास छील लेंगे, कोशिश करेंगे भी तो थक जाएंगे। उनने माहिर चिकित्‍सक की भांति कहा है कि इनके दिमाग में भेजा नहीं होता। इससे यह भी लगता है कि वे बेवकूफों के सिर में भेजा ढूंढ रहे होंगे। बेवकूफों के सिर में भेजा ढूंढना वैसा ही है, जैसा गाजर के हलुवे में तरबूज की तलाश। पहले से नियत यह आम धारणा बिल्‍कुल बेबुनियाद है कि जिस के पास जो चीज नहीं होतीवह जमाने भर में दीवानों की तरह उस चीज की बहुत शिद्दत से खोज करता है। उन्‍हें इतने भर से तसल्‍ली नहीं हुई और उसके बाद नब्‍बे फीसदी बहुमत वालों को पागल कह दिए। उनके दिमाग को भूसामय बतला दिया। मतलब यह है कि वे खुद ही निश्चित नहीं हैं कि भारतीय बेवकूफ हैं, पागल हैं या उनका दिमाग भूसे का भंडार है। मूर्ख लोगों को आसानी से बहकाया जा सकता हैकहकर उन्‍होंने शराब पीकर बहकने वाली प्रक्रिया को अनजाने ही संदिग्‍धतता के तौर पर सर्टीफाइड कर दिया।
नाक की सीध में मूर्ख ही चलते हैं। जबकि पगडंडी भी सीधी नहीं हुआ करती हैं। उन्‍हें सीधा करने के प्रयत्‍न इसी प्रकार किए जाते हैं जिस प्रकार यह बयान दिया गया है। अब पता नहीं पगडंडी सीधी होगी या इसे सीधे करने वाले सीधे होने को मजबूर हो जाएंगे। भेड़ और भीड़ एक दूसरे का अनुसरण करती हैं। यही मूर्खों की ताकत है, गधा मूर्खता का पर्याय है तो क्‍या घोड़ा विपरीत अर्थ देता है। गधा घोड़ा सब मूर्खता के दायरे में ही आते हैं। एक लगाम से काबू आता है और दूसरा बिना लगाम के भी बेलगाम नहीं हो पाता। बेलगाम लेकिन काबू में आने वाले गधे दिमाग से पैदल होते हैं और लगाम से काबू में लाए जाने वाले घोड़े बुद्धि से पैदल नहीं होते, वे किसी भी तरह के मैदान में तेजी से दौड़ने में निष्‍णात होते हैं। दौड़ने में अपनी मर्जी उनकी भी नहीं दौड़ा करती। गर वे अपनी मर्जी से दौड़ते पाए जाते तो झांसी की रानी लक्ष्‍मीबाई का यूं नाम न होता, चेतक का नाम लगाम के दुरुस्‍त इस्‍तेमाल से चर्चा में आया। इस पर कविताएं लिखी गईं, क्‍या यह सौभाग्‍य बेलगाम घोडों या लगामधारी गधों के हिस्‍से आता।  
चाहे बुद्धिमान गधे हों या घोड़े वे नुक्‍कड़ पर अवश्‍य मुड़ जाते हैं और नुक्‍कड़ से जुड़ने की कला में दक्ष होते हैं। अगर यह कहा गया होता कि नब्‍बे प्रतिशत बुद्धिमान हैं तो चर्चा ही नहीं होती। कोई हंगामा नहीं मचता। कोई पहाड़ नहीं उछालता। अब उछाला गया वह पहाड़ टुकड़ों में बंटकर दस प्रतिशत बुद्धिमानों के सिरों पर गिर रहा है जबकि सब जानते हैं कि उन्‍होंने अपनी बुद्धिमत्‍ता के हेलमेट धारण कर  रखे हैं। वैसे यह गिरना सचमुच का गिरना नहीं है फिर भी क्‍योंकि आजकल आभासी संसार की शक्ति वास्‍तविकता दुनिया से अधिक मजबूत है इसलिए सिर्फ मूर्ख और नब्‍बे प्रतिशत ने कोहराम मचा ही दिया। कवि दुष्‍यंत कह गए हैं कि एक पत्‍थर तो तबीयत से उछालो यारो, पर कहने वाले अब इसे बदनियति से पहाड़ उछालना बतला रहे हैं। कई लोग तबीयत से पहाड़ उछालते हैं परंतु दुर्भाग्‍य देखिए कि उनके उछालने का न तो दस प्रतिशत और न नब्‍बे प्रतिशत ही नोटिस लेते हैं, पहाड़ भी बे‍-नोटिस खड़े रहते हैं।
बवाल मचाने के लिए भी बयान देना एक कला है जिसमें अल्‍पमतों द्वारा बहुमतधारकों को गरियाया जाता है, इस कला में सब पारंगत नहीं होते। इन मामलों में कई लोगों की कला पिलपिली होती है। पारंगत न होने के कारण बयानबाजी के समूचे रंगों का प्रभाव फि़ज़ा में नहीं गमकता और न बरसता है।
गधे घोड़े की चर्चा करके लगता है, मैंने उल्‍लू से दुश्‍मनी कर ली है। मूर्खता में उल्‍लू की कोई मिसाल नहीं है। भला जो दिन में सोए और रात को जागे, उसे यूं ही तो उल्‍लू नहीं कहा जाता है। जिन बच्‍चों के बाप का सम्‍मान करना हो उन्‍हें उल्‍लू का पट्ठा कह कर बेधड़क चने के झाड़ पर प्रतिष्‍ठापित कर दिया जाता है। गधे घोड़े उल्‍लू की यह मूर्खीय व्‍यथा, कहो कैसी रही ?

गाजर के हलवे में तरबूज की खोज : दैनिक जनवाणी स्‍तंभ 'तीखी नजर' 18 दिसम्‍बर 2012 अंक में प्रकाशित


इमेज अपलोड होने पर लगाई जा सकेगी, अभी सर्वर स्‍वीकार नहीं कर रहा है। 

नब्‍बे फीसदी भारतीय बेवकूफ हैंन्‍यायमूर्ति काटजू के इस कथन का सकारात्‍मक पक्ष भीहै कि बेवकूफ बहुमत में हैं। लोकतंत्र ही बहुमत, बहुमत ही लोकतंत्र है, इसके मुकाबले न ठहरा कोई तंत्र है। मतलब लोकतंत्र में बहुमत की तूती बोलती है और पुंगी बजती है। सोचिए भला, सिर्फ दस प्रतिशत बु‍द्धिमान क्‍या घास छील लेंगे, कोशिश करेंगे भी तो थक जाएंगे। उनने माहिर चिकित्‍सक की भांति कहा है कि इनके दिमाग में भेजा नहीं होता। इससे यह भी लगता है कि वे बेवकूफों के सिर में भेजा ढूंढ रहे होंगे। बेवकूफों के सिर में भेजा ढूंढना वैसा ही है, जैसा गाजर के हलुवे में तरबूज की तलाश। पहले से नियत यह आम धारणा बिल्‍कुल बेबुनियाद है कि जिस के पास जो चीज नहीं होतीवह जमाने भर में दीवानों की तरह उस चीज की बहुत शिद्दत से खोज करता है। उन्‍हें इतने भर से तसल्‍ली नहीं हुई और उसके बाद नब्‍बे फीसदी बहुमत वालों को पागल कह दिए। उनके दिमाग को भूसामय बतला दिया। मतलब यह है कि वे खुद ही निश्चित नहीं हैं कि भारतीय बेवकूफ हैं, पागल हैं या उनका दिमाग भूसे का भंडार है। मूर्ख लोगों को आसानी से बहकाया जा सकता हैकहकर उन्‍होंने शराब पीकर बहकने वाली प्रक्रिया को अनजाने ही संदिग्‍धतता के तौर पर सर्टीफाइड कर दिया।
नाक की सीध में मूर्ख ही चलते हैं। जबकि पगडंडी भी सीधी नहीं हुआ करती हैं। उन्‍हें सीधा करने के प्रयत्‍न इसी प्रकार किए जाते हैं जिस प्रकार यह बयान दिया गया है। अब पता नहीं पगडंडी सीधी होगी या इसे सीधे करने वाले सीधे होने को मजबूर हो जाएंगे। भेड़ और भीड़ एक दूसरे का अनुसरण करती हैं। यही मूर्खों की ताकत है, गधा मूर्खता का पर्याय है तो क्‍या घोड़ा विपरीत अर्थ देता है। गधा घोड़ा सब मूर्खता के दायरे में ही आते हैं। एक लगाम से काबू आता है और दूसरा बिना लगाम के भी बेलगाम नहीं हो पाता। बेलगाम लेकिन काबू में आने वाले गधे दिमाग से पैदल होते हैं और लगाम से काबू में लाए जाने वाले घोड़े बुद्धि से पैदल नहीं होते, वे किसी भी तरह के मैदान में तेजी से दौड़ने में निष्‍णात होते हैं। दौड़ने में अपनी मर्जी उनकी भी नहीं दौड़ा करती। गर वे अपनी मर्जी से दौड़ते पाए जाते तो झांसी की रानी लक्ष्‍मीबाई का यूं नाम न होता, चेतक का नाम लगाम के दुरुस्‍त इस्‍तेमाल से चर्चा में आया। इस पर कविताएं लिखी गईं, क्‍या यह सौभाग्‍य बेलगाम घोडों या लगामधारी गधों के हिस्‍से आता।  
चाहे बुद्धिमान गधे हों या घोड़े वे नुक्‍कड़ पर अवश्‍य मुड़ जाते हैं और नुक्‍कड़ से जुड़ने की कला में दक्ष होते हैं। अगर यह कहा गया होता कि नब्‍बे प्रतिशत बुद्धिमान हैं तो चर्चा ही नहीं होती। कोई हंगामा नहीं मचता। कोई पहाड़ नहीं उछालता। अब उछाला गया वह पहाड़ टुकड़ों में बंटकर दस प्रतिशत बुद्धिमानों के सिरों पर गिर रहा है जबकि सब जानते हैं कि उन्‍होंने अपनी बुद्धिमत्‍ता के हेलमेट धारण कर  रखे हैं। वैसे यह गिरना सचमुच का गिरना नहीं है फिर भी क्‍योंकि आजकल आभासी संसार की शक्ति वास्‍तविकता दुनिया से अधिक मजबूत है इसलिए सिर्फ मूर्ख और नब्‍बे प्रतिशत ने कोहराम मचा ही दिया। कवि दुष्‍यंत कह गए हैं कि एक पत्‍थर तो तबीयत से उछालो यारो, पर कहने वाले अब इसे बदनियति से पहाड़ उछालना बतला रहे हैं। कई लोग तबीयत से पहाड़ उछालते हैं परंतु दुर्भाग्‍य देखिए कि उनके उछालने का न तो दस प्रतिशत और न नब्‍बे प्रतिशत ही नोटिस लेते हैं, पहाड़ भी बे‍-नोटिस खड़े रहते हैं।
बवाल मचाने के लिए भी बयान देना एक कला है जिसमें अल्‍पमतों द्वारा बहुमतधारकों को गरियाया जाता है, इस कला में सब पारंगत नहीं होते। इन मामलों में कई लोगों की कला पिलपिली होती है। पारंगत न होने के कारण बयानबाजी के समूचे रंगों का प्रभाव फि़ज़ा में नहीं गमकता और न बरसता है।
गधे घोड़े की चर्चा करके लगता है, मैंने उल्‍लू से दुश्‍मनी कर ली है। मूर्खता में उल्‍लू की कोई मिसाल नहीं है। भला जो दिन में सोए और रात को जागे, उसे यूं ही तो उल्‍लू नहीं कहा जाता है। जिन बच्‍चों के बाप का सम्‍मान करना हो उन्‍हें उल्‍लू का पट्ठा कह कर बेधड़क चने के झाड़ पर प्रतिष्‍ठापित कर दिया जाता है। गधे घोड़े उल्‍लू की यह मूर्खीय व्‍यथा, कहो कैसी रही ?

फेसबुकिया ‘जन्‍मदिन’ से मुन्‍नाभाई की लिखचीत (चैटिंग)

जन्‍मदिन’ मेरा ऑनलाईन था जबकि मैं स्‍वयं सदा की तरह ऑफलाईन। लेकिन वो जन्‍मदिन’ ही क्‍या जो तलाश’ न सके। मैं फेसबुक’ पर मौजूद था किंतु प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष रूप में। एकाएक मेरे संदेश बॉक्‍स में किसी की उपस्थिति दर्ज हुई। जन्‍मदिन है,चाहे समय रात के बारह बजे का ही था। मेरे जन्‍मदिन ने मुझे शुभकामनाएं दी थीमैंने तुरंत संदेश के प्रत्‍युत्‍तर में धन्‍यवाद’ लिखकर भेजा। अब उधर से संदेश आया हा हा हा lol’ 

मैं : इस हंसने का कारण ?

जन्‍मदिन : जिंदगी से प्‍यार करने वाले इंसान तेरी जिंदगी का प्रत्‍येक पल लगातार कम हो रहा है और तू शुभकामनाओं को शुभ की तरह ले रहा है। चल मरने के लिए तैयार हो जा।

मैं : मतलबजन्‍मदिन है, आज शुभकामनाओं पर तो अधिकार है मेरा, 364 दिन की तपस्‍या के बाद शुभकामनाएं लिए यह दिन आता है इसलिए इसे खुशी की तरह ही लूंगासब लेते हैं। वैसे भी इसमें दुखी होने की कौन सी बात है, आज फेसबुक के कारण हजारों की संख्‍या में शुभकामनाएं मिल जाती हैं, लाखों में न सही और तुम मेरे मरने की कामनाएं कर रहे हो।

जन्‍मदिन : क्‍या यह सच्‍ची शुभकामनाएं हैं, जिंदगी का साल रीत रहा है, सब कुछ पल पल बीत रहा है, तुझे लग रहा है तू जग को जीत रहा है।

मैं : सच्‍ची ही हैं और क्‍या, यही तो जीवन का गीत है, इन्‍हीं शुभकामनाओं से तो मानव करता प्रीत है।

जन्‍मदिन : सच्‍ची नहीं हैंसच्‍चाई तो कड़वी है और वह यह कि आज तेरी जिंदगी से एक बरस और कम हो गया है। तू मौत के और पास पहुंच गया है। वैसे एक बात बतला कि तू जिंदा रहना चाहता है या मरना ?

मैं : मरना तो कोई नहीं चाहता हैएक चींटी या मच्‍छर को भी अपने प्राणों से मोह होता हैसो मुझे भी है।

जन्मदिन : फिर जन्‍मदिन से खुश क्‍यों हो रहा हैअधेड़ प्राणी ( मेरे 54 बरस का होने पर मुझ पर तंज कसा गया था)

मैं : (सोचने लगा, बात तो सोलह फीसदी सही है। सब जीना चाहते हैं फिर मौत के पास जाते हुए भी अनजाने में इतना खुश हो रहे हैं)

जन्‍मदिन : क्‍या हुआक्‍या सोचने लगा ?

मैं : (मरी हुई आवाज मेंमेरे शब्‍द गले में अटक रहे थेऊंगलियां कीबोर्ड पर चलने में विद्रोह करने के मूड में आ गई थींयह भी कह सकते हैं कि वह भी डर गई थीं क्‍योंकि मेरा मरना मेरी देह के प्रत्‍येक अंग-प्रत्‍यंग का मरना यानी निष्‍प्राण होना था। मेरी ऊंगलियों के हाथ-पांव फूल गए थे। मेरी दशा ऐसी हो गई कि काटो तो खून न निकलेदिसम्‍बर की कड़ाके की सर्दी में भी मैं पसीना-पसीना हो गया था। मेरी ऊंगलियों के माथे पर भी पसीने की बूंदे उभर आई थीं। मैं कुछ नहीं लिख पाया)

जन्‍मदिन : खिलखिला रहा था क्‍यों डर गया ?

मैं : (सचमुच डर गया थामुझे स्‍वीकारना ही पड़ा) यस।

जन्‍मदिन : जब यह सनातन सच्‍चाई है तो फिर इंसान क्‍यों नोटों के लालच में दीवाना हुआ जा रहा है। हर तरह से नोट जमा कर रहा है। अपनी मौत की ओर बढ़ती गति को खुश होकर जी रहा है।

मैं : लेकिन यह इंसान के हाथ में तो नहीं है ?

जन्‍मदिन : फिर जन्‍मदिन न मनाना तो इंसान के हाथ में ही है। इसे मनाना तो तू छोड़ दे।

मैं : लेकिन मेरे अकेले के छोड़ने से क्‍या होगा ?

जन्‍मदिन : समाज में जितनी भी क्रांतियां आई हैं या आती हैंवे सिर्फ एक अकेले की सोच और संघर्ष का प्रतिफल होती हैं। तू शुरूआत तो कर।

मैं : मुझे कौन जानता है और कोई मेरी बातों को क्‍यों मानेगामैं कोई बहुत बड़ा नेता नहीं हूंसत्‍ता में किसी शीर्ष पद पर विद्यमान नहीं हूं। मंत्री नहीं हूंराष्‍ट्रपति नहीं हूंसेलीब्रिटी नहीं हूंकोई बहुत बड़ा साहित्‍यकार नहीं हूंहांएक छोटा सा कवि, अदना सा व्‍यंग्‍य लेखक और कमजोर  हिंदी का मजबूत ब्‍लॉगर  जरूर हूं और जितना लिख लेता हूं उसमें से 15 या 20 परसेंट छप जाता है। मैं बाल ठाकरे नहीं हूंपोंटी चड्ढा नहीं हूं और तो और किसी मंत्री का निजी सचिव भी नहीं हूं। मैं असीम त्रिवेदी भी नहीं हूं और उन दो कन्‍याओं में से भी नहीं हूं जिन्‍हें फेसबुक पर टिप्‍पणी करने और लाइक करने के आरोप में हिरासत में ले लिया गया था। आखिर मेरी हैसियत है क्‍या ?

जन्‍मदिन : इनमें से कोई न सहीकिंतु एक आम आदमी तो है ही तू।

मैं : आम आदमी’ पर भी अब केजरीवाल का पेटेंट हो चुका है। क्‍या बचा हूं मैंसिर्फ एक वोटरजिसके बैंक खाते में अब सरकार सीधे सब्सिडी का पैसा डालेगी और वोट हथिया लेगी। जबकि मैं यह सच भी जानता हूं कि मेरा कोई बैंक खाता नहीं है और अब तो आसानी से खुलने वाला भी नहीं है। (मेरी बातों के जाल में जन्‍मदिन’ पूरी तरह उलझ गया था। मेरे संदेश बॉक्‍स में जन्‍मदिन की ओर से अब एक अंतिम संदेश आया कि मुझे अभी 14 दिसम्‍बर के दिन पैदा हुए बहुत सारे प्राणवानों को शुभकामनाएं देनी हैंमैं चलता हूं।)

तभी मेरी नींद खुल गई।  मेरी धर्मपत्‍नी मुझे जगाकर बहुत प्‍यार से जन्‍मदिन के लिए विश’ कर रही थी क्‍योंकि मैं लैपटॉप को गोद में लिए लिए हुए झपकी ले रहा था। सामने घड़ी में समय देखा 12 बजकर 5 मिनिट हुए थे।  मैंने पत्‍नी को अपने आगोश में ले लिया और इस फेसबुकिया’ दु:स्‍वप्‍न को भूलने की चेष्‍टा करने लगा। अब तक मेरी टाइमलाईन पर शुभकामनाओं की लाईन लग चुकी थी। एकाएक अहसास हुआ मात्र 5 मिनिट में इतनी बड़ी कहानी।

इस लिखचीत से यह सीख मिलती है कि सपने की गति काफी तीव्र होने का आधार सबसे पुख्‍ता है।  

इंडिया की हंडिया : दैनिक जनवाणी स्‍तंभ 'तीखी नज़र' 11 दिसम्‍बर 2012 को प्रकाशित

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एफडीआई और वालमार्ट से सब रिश्‍तेदारी जोड़ने में जुट गए हैं। बवाल मचा हुआ है। कोई मित्र उन्‍हें चच्‍चा बतला रहे है तो कोई उन्‍हें दद्दू कह रहे हैं। मेरे एक मित्र उनके साथ वाली को भौजी कहते नहीं अघा रहे हैं। दूसरे गरीब की जोरू बतला रहे हैं। मेरी मानो तो पहली बार इसे अमीर की बेगम बनने का मौका मिला है। सो खुद बेगम हो जाएंगी और अपने चाहने वालों को गमों से सराबोर कर देंगी। अभी तक तो यह भी नहीं फाईनल हुआ है कि वे समलिंगी हैं अथवा उभयलिंगी। कुछ कुछ मुगालता फिज़ा में महका हुआ है।  फिर यह क्‍यों नहीं बतलाते कि अब तक इनके अपने वे कहां पर छिपे बैठे थेबैठे होते तो दिखलाई दे जातेहो सकता है छिपे लेटे हों। जो भी होंआखिर वे कहां थेक्‍या किसी कुंभमहाकुंभ में बिछड़े थे या फिरंगी आजादी देते समय किसी गोपनीय डील के तहत उन्‍हें अपने साथ ले गए थे। अब क्‍यों आजाद कर दिया है। फिर भी इतना तो पक्‍का तय है कि एफडीआई नहीं किसी की माई है। जो बच्‍चों के हित के लिए काम करेयह तो सबको हिट ही करेगी।
सोचा होगा कि अब तक खूब मालदार हो गया होगा इंडियाबन जाओ चच्‍चा या दद्दू और खाली करो इंडिया की हंडिया। हंडिया तब तक ही भाती है जब तक उसका ढक्‍कन नहीं खोला जाता। ज्‍यों ही ढक्‍कन खुलता है सारी असलियत नमूदार हो जाती है। इससे कई बार इज्‍जत का फलूदा बन जाता है। फलूदा न बन पाए तो ये घनिष्‍ठ नातेदार चच्‍चा या दद्दू अपनी हरकतों से बाज नहीं आते हैं और इज्‍जत को लूटने में लग जाते हैं। यही तो इनकी आघातें हैं।  दरअसलये चच्‍चादद्दू कोई और नहीं अंकल’ ही हैं और इन्‍हें मुगालता रहा है कि इनमें अकल बहुतायत से लबालब है। अंकल’ कहलवाते हैं और अकल’ अपनी भिड़ाते हैं। नब्‍बे प्रतिशत को मूर्ख बतलाते हैं। अपनी इस तथाकथित अक्‍ल के बूते उन्‍होंने नेताओं को तो फांस ही रखा है अब किसानों को भी उलझाने का उपक्रम चालू कर दिया है। काफी हद तक उनकी अक्‍ल के घोड़ों में रवानगी आ गई है। रही सही कसर गति उनके नाते-रिश्‍तेदारी खोजक यार पूरी कर रहे हैं।
जहां तक मालदार होने का मामला है तो इसमें एक ही राय है कि जहां होता है माल, वहीं पर वॉलमार्ट की आर्ट निखरकर सामने आती है और वहीं पर कला के गलियारे ओपन होते हैंवहीं पर भ्रष्‍टाचार अपने बवाल से सबको मोहित किए रहते हैं। घपले-घोटालों की किस्‍मत खुल खुल जाती है। ईमानदारी को अपनी नानी,चाची, दादी सब याद आती हैं और नॉस्‍टेल्जिया’ सक्रिय हो उठता है। अतीत की यादें सोडे में उफान की मानिंद सुर्खियों में कहर बरपाती हैं। चैनलों को जोर का झटका पूरी ताकत से लगाने का कार्य मिलता है। मालदार की ऐसी तैसी करने के नाम पर किसानों और पब्लिक का बेड़ा गर्क किया जाता है।
जबकि सही मायनों में एफडीआई की सटीक व्‍याख्‍या फुल ड्रामा इन इंडिया’ की जा सकती है परंतु इसे फॉरेन डायरेक्‍ट इंवेस्‍टमेंट’ कहकर सदा से सबको लुभाया जाता रहा है। जबकि इस असलियत की कलई कुछ लोगफेल्‍ड डेमोक्रेसी इन इंडिया’ का नाम देकर खोलते हैं और फटाफट डकारो इंडिया’ कहकर इनकी नीयत पर ही सवाल उठा देते हैं। सोशल मीडिया पर इनकी फजीहत जारी है किंतु संसद में सांसद इनकी नित नई गोलाईयां उभारने में बिजी हैं। चक्‍करघिन्‍नी की तरह घूमते देश के सिर पर कभी कोई इस बहाने और कभी उस बहाने से सवार हो जाता है और लूट कर किसी भी स्‍टेशन पर जानबूझकर छूट जाता है फिर नए लुटेरे मौका देख सवार हो जाते हैं। लूट का खेल जारी है। रही सही कसर वे नोंच खरोंच कर पूरी कर रहे हैं।
पब्लिक और किसान हैरान हैंपरेशान हैंमाल मिलेगा या उनके और माल के मध्‍य में वॉल खींच दी जाएगी। वाल पारदर्शी शीशे की होगीमाल खूब दिखेगालगेगा कि इस बार घर जरूर भरेगा परंतु जब किसान उस माल को लेने के लिए आगे बढ़ेगा तो शीशे से टकराएगा और वॉलमार्ट का शीशा नहींइस देश का किसान चूर चूर हो जाएगा। किसान की नियति टूटना ही है और इस बार बिखर जाएगा कांच की किरचों की मानिंद। रिटेल की टेल हनुमान की पूंछ की तरह लंका जलाती दिखाएगीसबको लेगी लपेटपेट पर देगी तीखी और गहरी चोट। देश के शरीर पर घाव दर घाव होते रहेंगे और उससे भी तेजी से वस्‍तुओं के भाव चढ़ेंगेइंडिया की हंडिया खाली करने की यह क्रियाकहो कैसी रही ?